ये कैसा जीवन है जो ना चलता है ना रुकता है ,
इंसान को असमंजस में डाले , जाने क्या-क्या खेल खेलता है ,
हम तो बैठे-बैठे भविष्य की कल्पना करते रहते है,
ये तो एक ही दिन में वक़्त पलट देता है
कौन किस-किस को समजाये , क्या हो रहा है जीवन में?
ये तो किसी एक ही के हाथ का रचाया खेल लगता है
अजीब है ये जीवन की गतिविधियाँ,
बाँध देती है इंसानों को अपनी डोरों से,
इन्हें समजने वाला आज़ाद है ,
और ना समजने वाला अब भी नादान है
ये कैसा जीवन है जो ना चलता है ना रुकता है,
इंसान को असमंजस में डाले , जाने क्या-क्या खेल खेलता है
धन्यवाद
शैली पंचाल
सूरत (गुजरात)
स्वरचित कविता
दिनांक:१/१/२०१० समय: ११:३२ प.म.
Sunday, January 3, 2010
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